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मन की चाह इंसान के लिए कामयाबी के सभी दरवाज़े खोल सकती है, बशर्ते इस चाह के साथ सच्ची लगन और मेहनत भी होनी चाहिए. गरीबी और शारीरिक अक्षमता के कारण कई लोग हिम्मत हार कर अपने अंदर की चाह को खत्म कर देते हैं जबकि आईएएस ऑफिसर मनीराम शर्मा जैसे लोग हर हाल में कामयाबी पाना जानते हैं. तो चलिए आज हम बात करते हैं एक मजदूर पिता और दृष्टिहीन मां के उस बधिर आईएएस बेटे के बारे में जिसने परिस्थितियों के अलावा सरकारी नियमों के साथ भी 15 साल लंबी लड़ाई लड़ी और जीत गया.

न 1975 में राजस्थान, अलवर जिले के एक गांव बंदनगढ़ी में मनीराम शर्मा का जन्म एक बेहद गरीब परिवार में हुआ. गरीबी अकेली समस्या नहीं थी जिससे मनीराम का परिवार संघर्ष कर रहा था, बल्कि इसके साथ ही शारीरिक विकलांगता भी इस परिवार के हिस्से लिखी थी. मां की आंखों की रौशनी नहीं थी और पांच साल की उम्र से मनीराम की सुनने की शक्ति कम होने लगी. पिता मजदूर थे इस वजह से बच्चे का अच्छा इलाज ना करा सके जिसके कारण 9 साल की उम्र तक मनीराम ने पूरी तरह से सुनने की क्षमता खो दी. ग्रामीण क्षेत्रों के अच्छे भले बच्चे सही शिक्षा और सही मार्गदर्शन ना मिलने की वजह से जीवन में कुछ बेहतर नहीं कर पाते, मनीराम तो वैसे भी शारीरिक अक्षमता से जूझ रहे थे. लेकिन मनीराम के विषय में ये बात सबसे अच्छी थी कि संसाधनों की कमी के बावजूद उनका पढ़ने में बहुत मन लगता था. 

उन दिनों इनके गांव में कोई स्कूल नहीं था. अन्य बच्चों के लिए पढ़ाई-लिखाई में मुश्किल आ रही थी लेकिन मनीराम पढ़ाई को लेकर जुनूनी थे. यही वजह रही कि वह हर रोज 5 किलोमीटर पैदल चलकर गांव के बाहर स्थित एक स्कूल में जाया करते थे. मनीराम की पढ़ाई के प्रति ये लगन बनी रही, जिसका परिणाम इनकी 10वीं और 12वीं की परीक्षा में देखा गया. इन्होंने राज्य शिक्षा बोर्ड की 10वीं की परीक्षा में पांचवां और बारहवीं की परीक्षा में सातवां स्थान प्राप्त किया. 

बधिर होने के कारण नहीं बन पाए थे चपरासी

हालात ये थे कि 10वीं की परीक्षा पास करने के बाद इनके पिता ये सोचकर खुश थे कि अब मनीराम को चपरासी की नौकरी मिल जाएगी. यही कारण था कि जब मनीराम के दोस्तों ने घर आकर उन्हें और उनके पिता को दसवीं में पास होने की खबर सुनाई तो पिता बहुत खुश हुए और उन्हें लेकर एक विकास पदाधिकारी के पास पहुंच गए. बेटे की नौकरी लगवाने की उम्मीद में उन्होंने अधिकारी से कहा कि बेटा दसवीं पास हो चुका है.

इसे चपरासी की नौकरी दे दीजिए. इस पर उस अधिकारी का जवाब था कि “ये तो सुन ही नहीं सकता. इसे न घंटी सुनाई देगी न ही किसी की आवाज. ये कैसे चपरासी बन सकता है ?” भले ही इस जवाब ने एक मजदूर पिता की उम्मीद को तोड़ा था मगर उन्हें क्या पता था कि चपरासी की नौकरी ना दे कर अनजाने में वह अधिकारी मनीराम के लिए आगे बढ़ने के रास्ते खोल रहा है. निसंदेह ही, अगर मनीराम उस दिन चपरासी बन जाते तो आगे चलकर कभी भी आईपीएस ना बन पाते.

पढ़ाई के मामले में मनीराम अभी संतुष्ट नहीं थे इसीलिए इन्होंने पीएचडी करने का फैसला किया. मनीराम ने पॉलिटिकल साइंस में पीएचडी तब पूरी की जब वह राजस्थान यूनिवर्सिटी में एमए, एमफिल के विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे. पीएचडी के बाद मनीराम का अंतिम और सबसे कठिन लक्ष्य था यूपीएससी. हालांकि आईएएस बनने का लक्ष्य लेकर मनीराम ने 1995 में ही यूपीएससी की परीक्षा दी थी लेकिन वह प्रीलिम्स भी क्लियर नहीं कर पाए थे. लेकिन 2005 के बाद वे तीन बार परीक्षा में बैठे और तीनों बार इसे पास किया. यदि मनीराम बहरेपन से ना जूझ रहे होते तो शायद 2005 में ही उनका आईएएस बनने का सपना पूरा हो जाता लेकिन इसी अक्षमता के कारण उन्हें नौकरी नहीं दी गई. 

आखिरकार कर दिया असंभव को संभव 

2006 में इन्होंने फिर से प्रयास किया और फिर से परीक्षा पास कर ली. इस बार इन्हें पोस्ट एंड टेलीग्राफ अकाउंट्स की कमतर नौकरी दी गई, जो इन्होंने स्वीकार कर ली. मनीराम समझ चुके थे कि जब तक उनके साथ ये बहरापन रहेगा तब तक उनका सपना पूरा नहीं हो सकता. इसी सोच के साथ वह अपनी इस अक्षमता का इलाज खोजने लगे. इसी दौरान एक डॉक्टर ने मनीराम शर्मा को बताया कि उनके कान के ऑपरेशन द्वारा उनके सुनने की क्षमता वापस आ सकती है लेकिन इसके लिए 7.5 लाख रुपयों की जरूरत पड़ेगी. मनीराम इतने सक्षम तो नहीं थे कि इतने रुपयों की व्यवस्था कर पाते लेकिन फिर भी उन्होंने कोशिश की और कामयाब रहे.

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