कोरोना की मार देश के हर गांव शहर और कस्बे पर पड़ी है. शहरों के मुकाबले गांवों का हाल ज़्यादा बुरा है क्योंकि ना तो यहां पर शहरों की तरह मेडिकल सुविधाएं हैं और ना ही यहां के लीग कोरोना सुरक्षा नियमों को लेकर इतने जागरुक हैं लेकिन अगर हम यहां यूपी के बरेली स्थित अंगूरी गांव की बात करें तो यहां की व्यवस्था और लोगों की समझ अन्य से बहुत अलग है. यही वजह है कि कोरोना के शुरुआत से लेकर अभी तक ये गांव इस वायरस से अछूता है.
जीरो कोरोना केस
आज के इस भयावह दौर में किसी शहर या गांव के बारे में ये सुनना आश्चर्यचकित कर जाता है कि यहां कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या जीरो है. लेकिन इस गांव ने अपनी सूझ बूझ से ऐसा चमत्कार कर दिखाया है. यह चमत्कार संभव हो पाया है यहां के लोगों की मेहनत और आज के दौर में भी जमीन से जुड़े रहने की आदत से. इनके रहन सहन से लेकर खानपीन तक सबकुछ देसी और घर का है. अच्छी बात ये है कि यहां के ज़्यादातर लोग शिक्षित हैं. लेकिन इनमें यह बात और अच्छी है कि शिक्षित होने के बावजूद ये लोग मवेशियों का गोबर उठाने या खेतों में काम करने से परहेज नहीं करते.
बाहर से कोई सामग्री नहीं आती गांव में
यहां की महिलाएं शिक्षित और संस्कारी दोनों हैं. शिक्षित होने के साथ साथ ये महिलाएं घर के उन कामों में भी निपुण हैं जिनकी आदत हमारे देश ने लगभग भुला ही दी है. पैकेट में बंद ब्रांडेड आटे की रोटी खाने वाले इस दौर में भी यहां कि महिलाएं खुद चक्की पीसती हैं और हाथों से पिसे आटे और दलिए को ही खाने में प्रयोग करती हैं. बाहर रहने वाले गांव के बाशिंदे भी समझदार हैं तथा अपने गांव की सुरक्षा को लेकर सचेत हैं. जागरण की रिपोर्ट के अनुसार यहां के एक ग्रामीण ने बताया कि पिछले साल कोरोना की शुरुआत से ही यहां कोई कोरोना पॉजिटिव नहीं पाया गया.
पिछले साल 150 से अधिक लोग बाहर से गांव लौटे थे लेकिन उन सभी को स्कूलों में आइसोलेट किया गया. इस बार बहुत से लोग होली में आए थे जिसके बाद वे वापस गए ही नहीं. गांव में सुविधाओं की कमी है लेकिन फिर भी यहां के लोग व युवा यहीं काम कर के खुश हैं. ये नलकूपों से पानी निकलते हैं, गांव के मात्र 4 सबमर्सिबलों की मदद से ही खेतों का गेहूं, धान और सब्जियां उगाते हैं और इसी को अपने प्रयोग में लाते हैं. यहां के लोग मानते हैं कि जब यहां बाहर से कुछ आता ही नहीं तो कोरोना के गांव में घुसने का सवाल ही नहीं उठता.
इस कारण हैं सुरक्षित
अपने खेतों में उपजाया अनाज और सब्जियां प्रयोग करने के अलावा ये लोग आटा और दलिया भी खुद से ही पीसते हैं. कोरोना संक्रमण फैलने के काफी समय बाद तक भी ये लोग आटा पिसवाने के लिए आटा चक्कियों पर नहीं गए. जो लोग बाहर जा कर मजदूरी करते थे वे गांव लौटने के बाद से यहीं मजदूरी कर रहे हैं.
पूरा गांव एक दूसरे की मदद करता है. ये लोग मेहनत पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं. साइकिल चलाते हैं, नलकूप चलाते हैं, महिलाएं घर पर ही आटा और दलीय पीसती हैं, घूंघट निकालती हैं जो काफी हद तक मास्क का कम करता है. जागरण की रिपोर्ट के मुताबिक पूर्व आईएमए अध्यक्ष डा रवीश ने बताया कि गांव के लोगों की जीवनशैली ही इनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में इनकी मदद कर रही है. वहीं नलकूपों से पानी भरने के कारण इनके फेफड़े भी काफी मजबूत हो जाते हैं.