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तमिलनाडु की रहनेवाली डी इंद्रा, व्हीलचेयर के सहारे चलती हैं। वह लगभग चार साल की थीं, जब उन्हें मानसिक व शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए बने आश्रयगृह में भर्ती कराया गया था। उस दौरान इंद्रा, अपने माता-पिता और बड़ी बहन से वीकेंड पर ही मिल पाती थीं। इसलिए वह अपनों से दूर रहने के दर्द और ऐसे बच्चों की जरूरत को अच्छे से समझती हैं। 

साल 2019 में, इंद्रा ने प्रेमा इल्लम में रहनेवाले बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती करनी शुरू की थी। पिछले साल जब लॉकडाउन हुआ, तो उन्होंने अपने खेत की उपज को बढ़ा दिया। ताकि वह अपने गांव के आर्थिक रूप से कमजोर या COVID-19 के कारण प्रभावित लोगों को भोजन मुहैया करा सकें। उस दौरान, वह उन बच्चों के भोजन का भी ध्यान रखने लगीं, जिनके माता-पिता वायरस से संक्रमित थे।

इंद्रा कहती हैं, “हम खेती के एक च्रक में तक़रीबन 25 बोरी चावल उगाते हैं, जो हमारे संस्था के बच्चों की जरूरत के हिसाब से काफी है। बाकी का बचा हुआ आनाज, हम आस-पास के गांव के जरुरतमंद लोगों में बांट देते हैं। हम अपने आश्रयगृह के कंपाउंड में कुछ सब्जियां और फल भी उगाते हैं। महामारी के कठिन दौर में, हम जैविक खेती से लोगों तक खाना पहुंचा पाए, इसकी मुझे बेहद खुशी है।” 

उनके खेत, गांव से कुछ दूरी पर हैं, जहां वह समय-समय पर जाती रहती हैं। 

इंद्रा, प्रेम इल्लम  में रहतीं हैं। वह, करीब 30 विकलांग लड़कियों के लिए माँ के समान हैं। लेकिन, उनमें से कुछ ही उनके जीवन की प्रेरक कहानी के बारे में जानती हैं। 

जब इंद्रा सिर्फ पांच महीने की थीं, तब उन्हें पोलियो हो गया था। जिसके कारण उनमें 90% विकलांगता आ गई थी। उनके माता-पिता ने उन्हें चेन्नई स्थित बच्चों के लिए बनी एक विशेष संस्था में डाल दिया। उन्हें उम्मीद थी कि एक दिन वह जरूर चलने लगेंगी। शुरुआत में उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी और संस्था में आकर ही, उन्होंने पढ़ना-लिखना सीखा। वहां मौजूद बाकी बच्चे खिलौनों के प्रति आकर्षित होते थे, लेकिन इंद्रा को किताबें पढ़ना पसंद था। हालाँकि, उनके परिवार की ओर से उनके पढ़ने के सपने और करियर के लक्ष्यों को, कभी प्रोत्साहन नहीं दिया गया था।

 नई शुरुआत

इंद्रा के जीवन में असल बदलाव तब आया, जब वह सेल्विन रॉय के सम्पर्क में आईं। पेशे से क्लीनिकल साइकोलोजिस्ट सेल्विन, भारत और श्रीलंका के आश्रयगृहों में रहनेवाले बच्चों की सेवा के लिए काम करते थे।

इंद्रा के उत्साह और सीखने की जिज्ञासा से प्रभावित होकर, सेल्विन ने विकलांग बच्चों को शिक्षा से जोड़ने का फैसला किया। उन्होंने, साल 1999 में प्रेमा वासमनाम की संस्था शुरू की।  

इंद्रा, सेल्विन को अपना भाई मानती हैं। वह कहती हैं, “सेल्विन भाई ने मुझ पर विश्वास किया और मेरे माता-पिता को समझाया कि मैं भी सामान्य बच्चों की तरह स्कूल जा सकती हूं। लेकिन मेरे माता-पिता नहीं चाहते थे कि स्कूल में मेरी कमजोरियों का मजाक बने। साथ ही उन्हें मेरी सुरक्षा का भी डर था। लेकिन सेल्विन भाई ने मुझे हिम्मत दिलाई और समझाया कि यह थोड़ा मुश्किल जरूर होगा पर वह मेरा साथ देंगे।”  

शुरुआत में कई स्कूलों ने इंद्रा को एडमिशन देने से मना कर दिया। कुछ स्कूलों ने तो इसलिए ना कहा, क्योंकि वहां ऐसे बच्चों के लिए बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं। वहीं, कुछ ने यह कहकर मना कर दिया कि यह स्कूल में पढ़ते बाकि बच्चों के लिए सहज नहीं होगा। कुछ समय बाद आख़िरकार, एक स्कूल में उन्हें कक्षा 8 में एडमिशन मिल गया। 

वह बताती हैं, “मैंने अपने जीवन के पहले 10-12 साल संस्था में या घर पर ही बिताए थे। इसलिए मैं बाहर की दुनिया, इसके लोग, समाज की व्यवस्था आदि से पूरी तरह से अनजान थी। मैं शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के साथ ही रही थी, लेकिन अब मुझे सामान्य बच्चों के साथ रहना था। मुझे न केवल अपने नए स्कूल में पाठ्यक्रम के साथ ताल-मेल बिठाना था, बल्कि अपनी उम्र के अन्य बच्चों के साथ रहना भी पड़ता था। हर दिन स्कूल से  मैं रोती हुई वापस आती और सेल्विन भाई से शिकायत करती थी। लेकिन उन्होंने हार मानने के बजाय, मुझे सिखाने के लिए कड़ी मेहनत की। वह मुझे खुद स्कूल भी ले जाते थे।”

सेल्विन ने उससे एक बार कहा था कि बार-बार असफल होना ठीक है, लेकिन हार मानना नहीं। इंद्रा ने इस बात को हमेशा अपने ज़हन में रखा और इसी से उन्हें पढ़ाई में और अच्छा करने की प्रेरणा मिली। 

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