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कहते हैं कि जिंदगी में जहाँ भी चुनौतियाँ होती हैं, वहाँ अवसर भी छिपा होता है। कुछ ऐसी ही कहानी बिभू साहू की है।

बिभू मूल रूप से ओडिशा के कालाहांडी के रहने वाले हैं। वह पहले एक शिक्षक के रूप में काम कर रहे थे, लेकिन 2007 में, उन्होंने धान का व्यवसाय करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी।

अगले कुछ वर्षों तक, इस व्यवसाय में रहने के बाद, 2014 में, उन्होंने चावल मिल के व्यवसाय में अपना कदम रखने का फैसला किया और वह इसमें 2 वर्षों तक रहे।

चावल के मिलों में काफी मात्रा में भूसी बनता है। इसे सामान्यतः खुले में जला दिया जाता है। जिससे पर्यावरण को काफी क्षति होती है। साथ ही, इससे हमारे स्वास्थ्य पर भी काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

इस समस्या से निपटने के लिए, बिभू ने स्टील कंपनियों को भूसी निर्यात करना शुरू कर दिया। जिससे वह लाखों की कमाई करते हैं।

“कालाहांडी ओडिशा में चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। यहाँ हर साल करीब 50 लाख क्विंटल धान की खेती होती है। यहाँ दर्जनों पैरा ब्लोइंग कंपनियाँ हैं, जो चावल का ट्रींटमेंट करती हैं। जिससे बड़े पैमाने पर भूसी का उत्पादन होता है,” वह कहते हैं।

उन्होंने बताया कि केवल उनकी मिल में हर दिन करीब 3 टन भूसी का उत्पादन होता है।

“यहाँ आमतौर पर, भूसी किसी खुली जगह में फेंक दी जाती है। हवा चलने के बाद इससे साँस लेने में और आँखों में काफी दिक्कत होती है। इसकी शिकायत मोहल्ले के कई लोगों ने की,” बिभू कहते हैं, जो हरिप्रिया एग्रो इंडस्ट्रीज के मालिक भी हैं।

एक लंबा संघर्ष

लोगों की बढ़ती शिकायत को देख, बिभू ने भूसी को पैक कर, गोदाम में रखना शुरू कर दिया। लेकिन, जल्द ही उनके पास जगह की कमी हो गई।

वह कहते हैं, “इसके बाद, मैंने थोड़ा रिसर्च किया। इससे मुझे मालूम हुआ कि चावल की भूसी का इस्तेमाल स्टील उद्योग में एक थर्मल इन्सुलेटर के रूप में किया जा सकता है। इसमें 85% सिलिका होती है। इसलिए यह स्टील रिफ्रैक्टर में इस्तेमाल के लिए काफी अच्छा होता है।”

इस तरह, जब बॉयलर में जली भूसी का इस्तेमाल किया जाता है, तो उच्च तापमान के कारण, इससे बहुत अधिक प्रदूषण नहीं होता है।

इसी कड़ी में, उन्होंने मिस्र के एक स्टील कंपनी का भी दौरा किया और एक सैंपल के साथ अपने प्रस्ताव को रखा।

वह कहते हैं, “मैंने उन्हें इसकी प्रक्रिया के बारे में बताया। इसमें उन्होंने अपनी रुचि दिखाई और पूछा कि क्या यह उन्हें पाउडर के रूप में उपलब्ध कराया जा सकता है। मैंने कहा कि यह कठिन होगा, क्योंकि यह हवा में उड़ सकती है। फिर, काफी विचार विमर्श के बाद, यह तय हुआ कि भूसी को एक गोली के रूप में बदल कर, निर्यात किया जाएगा।”

हालांकि, इससे बिभू के सामने एक नई चुनौती थी। वह कहते हैं, “मुझे नहीं पता था कि इससे गोली को कैसे बनाया जाता है। इसलिए मैंने महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिम बंगाल जैसे कई राज्यों के विशेषज्ञों को बुलाया। लेकिन, कुछ नतीजा नहीं निकला।”

बिभू कहते हैं कि पैलेट बनाने की प्रक्रिया को समझने के लिए एक पोल्ट्री फार्म से भी संपर्क किया, लेकिन, यह कोशिश भी व्यर्थ थी।

आज कई देशों में पहुँच रहा उत्पाद

अगले कुछ महीनों तक, बिभू ने अपने सभी संसाधनों को सिर्फ रिसर्च पर झोंक दिया।

वह कहते हैं, “मुझे लगा मेरा कांसेप्ट प्रैक्टिकल नहीं है और मैंने हार मान लिया। लेकिन, ठीक उसी समय, मेरे एक स्टाफ ने इसके समाधान के लिए कुछ समय माँगा। इसके बाद, वह अपने गाँव गए और चार लोगों के साथ आए। फिर, उनकी मदद से हमने कुछ प्रयोग किए और हम सफल रहे।”

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