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पूर्वी दिल्ली के यमुना खादर का झुग्गी कैंप उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड से रोज़गार की तलाश में आने वाले बहुत से लोगों के लिए उनका घर है। इन झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोग या तो दिहाड़ी मजदूरी करते हैं या फिर आस-पास खाली पड़ी ज़मीन पर सब्ज़ियां उगाते हैं और इन्हें बेचकर अपना गुज़ारा करते हैं।

इस स्लम का हाल बिल्कुल वैसा है ही जैसा कि आप और हम अक्सर टेलीविज़न की कहानियों में देखते हैं। बेतरतीब तरीके से बनाई गई झोपड़ियाँ, खुले नाले, और बेपरवाही में इधर-उधर खेलते बच्चे, जिनका सरकारी स्कूलों में नाम तो लिखा गया है पर वे स्कूल जाते नहीं हैं। इन बच्चों के माता-पिता के पास भी इतना समय नहीं है कि वे इनकी पढ़ाई पर ध्यान दे सके।

लेकिन फिर भी आपको इस स्लम में हर रोज़ ‘क से कबूतर,’ ‘ख से खरगोश’ या फिर ‘दो दूनी चार, दो तिया छह: ….” की एक स्वर में ऊँची आवाज़ सुनाई देगी। इस आवाज़ का पीछा करेंगे तो आप एक खाली-सी जगह में फ्लाईओवर के निर्माण के लिए रखी गई कुछ पत्थर की स्लैब्स की बीच पहुंचेंगे और इन्हीं स्लैब्स में से एक स्लैब के नीचे आपको इस आवाज़ का स्त्रोत दिखेगा।

एक फ्लाईओवर स्लैब, जिसके नीचे कुछ बच्चे आपको अपनी स्लेट पर लिखते और फिर अपने टीचर के साथ ऊँची आवाज़ में उसे दोहराते हुए दिखेंगे।

ये सभी बच्चे यमुना खादर झुग्गी कैंप के रहने वाले हैं और इनके टीचर, सत्येन्द्र पाल भी इसी झुग्गी कैंप के निवासी है। 23 वर्षीय सत्येन्द्र बीएससी फाइनल ईयर में है और अपनी पढ़ाई के साथ-साथ वे यहाँ इस फ्लाईओवर स्लैब के नीचे पहली से लेकर दसवीं कक्षा तक के लगभग 200 बच्चों को पढ़ाते हैं।

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