“मुझे उसके ऐडजस्ट करने की क्षमता बहुत अच्छी लगती है। वो कोई सवाल नहीं करती और किसी भी परिस्थिति में ढल जाती है।”
“….और मुझे उनका हमेशा खुश रहने का स्वभाव अच्छा लगता है। बड़ी से बड़ी मुसीबत का हल वो हँसते-हँसते कर देते हैं।”
जब दादा-दादी एक दूसरे के बारे में शर्माते हुए ये कहते हैं, तो सुननेवाले के चेहरे पर मुस्कान आए बगैर नहीं रहती।
गुजरात के अहमदाबाद शहर में रहनेवाले 72 वर्षीय दीपक बुच और 65 वर्षीय मंजरी बुच भले ही, सिर्फ अपनी मुस्कान का श्रेय एक दूसरे को देते हो, पर सच तो यह है कि ये हमराही जोड़ा सैकड़ों बच्चों की मुस्कान की वजह भी है।
साल 2004 में जब दीपक बुच रिटायर हुए, तब शायद ही उन्होंने और उनकी पत्नी मंजरी ने सोचा होगा कि उनकी ज़िंदगी की सेकंड इन्निंग इतनी जल्दी शुरु हो जाएगी। दोनों एक संयुक्त परिवार में रहते थे। 10 लोगों का भरा-पूरा परिवार था। एक बेटा था, जो सेटल हो चुका था और पोती के साथ मन बहलाने में सारा समय यूँही कट जाता था।
अहमदाबाद के व्यस्त इलाके में स्थित ‘सचिन टावर्स’ के उनके तीन बेडरूम, हॉल किचन वाले इस फ्लैट में किसी चीज़ की कोई कमी नहीं थी। लेकिन फिर एक दिन इसी फ्लैट की बालकनी से दिखने वाले एक खेल के मैदान पर दादा दीपक को कुछ नज़र आया और उन्हें किसी बात की कमी खलने लगी। कमी थी, ‘शिक्षा’ की।
“उस वक़्त हमारे अपार्टमेंट के आगे इतनी सारी इमारतें नहीं थी। AUDA की कॉलोनी (गरीबी रेशा के नीचे आनेवाले लोगों के लिए आवंटित सरकारी कॉलोनी) यहीं से दिखाई देती थी। इस कॉलोनी के 10×10 के घरों में ज़्यादातर सब्जी बेचने वाले, घरों में काम करने वाले, छोटे-मोटे कारीगर, या चपरासी का काम करने वाले लोग रहते हैं। इसके आगे पड़े खाली मैदान में अक्सर इनके बच्चे मुझे खेलते नज़र आते थे,” दादा ने बताया।
दादा के दिमाग में उस दिन एक बात आई कि यह वो तबका है, जो खुद तो न पढ़ सका, पर अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता है। इनके बच्चे भी, पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहते हैं। कमी है तो सिर्फ साधन की, जानकारी की और सही शिक्षा की।
अगले ही दिन दादा ने तय कर लिया कि वह इन बच्चों को पढ़ाएंगे और 8 जुलाई 2005 को शुरू हुई ‘दादा-दादी नी विद्या परब’ !
राहगीरों के लिए रखे हुए पानी के घड़े (प्याऊ) को गुजरती में ‘परब’ कहा जाता है। दादा-दादी भी इसी तरह ज़रूरतमंद बच्चों के लिए विद्या की परब बनना चाहते थे।
दादा ने पहले कभी नहीं पढ़ाया था और दादी की तो बी.ए खत्म होते ही शादी कर दी गई थी। पर यह जोड़ा जानता था कि शिक्षा की ज्योत जलाने के लिए अनुभव की नहीं, बस ज्ञान के दीये की ज़रुरत है।
शुरुआत हुई दादा-दादी के घर पर ही काम करने वाली कृष्णाबेन रबारी के दोनों बच्चों से। साथ में, कृष्णा बेन के पड़ोस के तीन बच्चे और जम गये। दादा का सीधा सा नियम था कि ये ट्यूशन्स मुफ्त हैं तो क्या? केवल 5 बच्चे हैं तो क्या? यहाँ अलग-अलग क्लासेस के बच्चे एक ही साथ बैठकर नहीं पढ़ सकेंगे ऐसा सोचकर सुबह, दादी पहले तीसरी और फिर चौथी के बच्चों को अपने बेडरूम में एक-एक घंटे के लिए पढ़ाती। उधर, दादा ड्रॉइंग रुम में 5वीं, 6वीं, 7वीं को सुबह एक-एक घंटा और 8वीं, 9वीं और 10वीं के बच्चों को शाम को एक-एक घंटा पढ़ाते।
धीरे-धीरे बात पूरे AUDA की कॉलोनी में फैल गई और कुछ ही साल में दादा-दादी के पास लगभग 100 बच्चे आने लगे।
“अगर किसी को बाहर भी जाना होता, तो बच्चों से खचाखच भरे ड्रॉइंग रुम से गुज़र कर जाना पड़ता। पर हमारे परिवार ने हमारा पूरा साथ दिया। मेरे भाई-भाभी, उनके बच्चे, बेटे-बहु और मेरी माँ ने भी पूरा सहकार किया। सोसाइटी वालों ने भी कभी कोई शिकायत नहीं की, उल्टा मदद के लिए हमेशा हाथ बढ़ाया। मेरी पोती तो स्कूल से आते ही इन बच्चों के पास आकर बैठ जाती और कोई शोर मचाता तो उसे डांटती,” दादा उन दिनों को याद करके खूब हँसते हैं।
9 साल तक इसी तरह यह सिलसिला चलता रहा। बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही थी और अब बड़ी कक्षाओं के बच्चों के लिए भी जगह चाहिए थी। ठीक सामने वाला फैल्ट खाली तो था, पर इतना किराया देना संभव नहीं था। ऐसे में अमेरिका में रहने वाले इस फ़्लैट के मालिक जितिन और रमोना आनंद ने बहुत कम किराए पर यह मकान दादा-दादी को दे दिया। इधर ज्योतिंद्रभाई देसाई, दीपकभाई मोदी और दर्शकभाई पटेल ने मिलकर हर महीने किराए की रकम देने की ज़िम्मेदारी उठा ली।
इस फ्लैट के मिलने से दादा-दादी और बच्चों को काफी राहत मिल गयी। बोर्ड की परीक्षा देनेवाले छात्र अब रात-रात भर यहाँ रहकर पढ़ाई करते और दादी उन्हें चाय बना-बनाकर देती रहतीं।
पर अभी एक समस्या और थी! तीसरी कक्षा से दादा-दादी के पास पढ़नेवाले विद्यार्थी अब 12वीं में आ चुके थे। इन बच्चों को अब करियर गाइडंस की ज़रुरत थी।
इनके लिए दादा-दादी ने अलग-अलग क्षेत्रों में पढ़ानेवाले प्रोफेसरों से संपर्क किया, जो इन्हें करियर के बारे में बताने के साथ-साथ, अलग-अलग विषयों की ट्रेनिंग भी देते हैं।
इन लोगों में शामिल हैं इसरो से रीटायर्ड साइंटिस्ट श्रीमती यगना बेन मांकड़, जिन्होंने दादा-दादी की क्लास को एक लैपटॉप और प्रोजेक्टर भी दान किया है। इसी प्रोजेक्टर पर वह बच्चों को कंप्यूटर और विज्ञान पढ़ाती हैं।
कॉमर्स की हफ्ते में 3 बार क्लास होती है, जो रीटायर्ड चार्टर्ड अकाउंटेंट परेश भाई बक्शी लेते हैं। हर रविवार यहाँ HRD की क्लास भी होती है, जिसके लिए IIM अहमदाबाद से एक प्रोफेसर आते हैं। इसके अलावा, संगीत सिखाने के लिए अमीबेन बुच, आर्ट्स और क्राफ्ट्स के लिए अमिताबेन उपाध्याय, कहानियों से बच्चों का मनोरंजन करने के लिए रीटायर्ड शिक्षक रमेश भाई रावल और योगा सिखाने के लिए वैशाली शाह हर रविवार आती हैं। ये सभी शिक्षक बिना किसी फीस के बहुत ख़ुशी-ख़ुशी इन बच्चों को आनेवाले भविष्य के लिए तैयार करते हैं।
“हम रिटायरमेंट को अक्सर हर काम का अंत समझते हैं, पर यह तो एक सुनहरा अवसर है, जहाँ हमें अपनी मर्ज़ी का काम करके व्यस्त रहने के लिए ढेर सारा समय मिलता है। शायद हमारी सेहत का राज़ भी यही है,” दादा कहते हैं।
दादा-दादी की मानें तो उन्हें इस राह में कभी कोई मुश्किल आई ही नहीं। उलटा अपने आप ही कुछ ऐसे समागम बनते चले गए कि परिचित हो या अपरिचित, हर कोई उनकी मदद को आगे आता रहा।
जहाँ डॉ.आरती बेन नायक और के.वी शाह हर महीने बिना बोले ही इन बच्चों के लिए कॉपी-पेंसिल जैसी ज़रूरी चीज़ें ले आते हैं। वही इस जोड़े के साथ शिल्पिन भाई मजूमदार जैसे लोग भी जुड़े हैं, जो अब तक यहाँ के 75 बच्चों को साइकिल दान कर चुके हैं। साथ ही, विदेश में रहने वाले कई ऐसे लोग भी हैं, जो न दादा-दादी से मिले हैं, न ही इन बच्चों से, फिर भी इन बच्चों की उच्च शिक्षा की फीस भरने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं।