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कहानी एक बहादुर बच्चे की, जिसने साबित किया कि ‘मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है’

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यह कहानी (story) है एक ऐसे बच्चे की है, जिसकी ज़िंदगी सामान्य बच्चों की तरह ही थी. अपने भाई फ्लॉएड के साथ स्कूल जाना, खेलना कूदना, दौड़ना भागना. हर आम बच्चे की तरह उसके जीवन में भी यही सब था. मगर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था.

आम दिनों की तरह उस दिन भी वो बच्चा अपने बड़े भाई के साथ स्कूल गया. सर्दी के दिन थे. लिहाज़ा, उन्हें कैरोसिन वाला स्टोब जला कर कमरा गर्म करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी. शायद वो रोज़ ऐसा करते हों मगर उस दिन कुछ ऐसा हुआ, जिसने बच्चे की ज़िंदगी बदल दी.

स्टोब से पूरे कमरे में आग फैल गयी. वो बच्चा और उसका भाई दोनों उस आग की चपेट में आ गये. फ्लॉएड की सांसें मौके पर ही थम गयीं, लेकिन ये बच्चा बच गया. मगर जिस तरह वो बचा था उस समय शायद हर किसी ने कहा होगा कि काश ये ना बचता.

उसके कमर से नीचे का पूरा हिस्सा बुरी तरह से जल चुका था. उसकी मां के अनुसार उस समय डॉक्टर को ज़रा उम्मीद नहीं थी कि वह बचेगा. बाद में कहा गया कि बचने का एक ही उपाय है और वो ये कि बच्चे के दोनों पैर काट दी जाएं. वैसे भी डॉक्टर के हिसाब से उन टांगों पर वो बच्चा कभी चल नहीं सकता था. हर हाल में उसे अब सारी उम्र व्हील चेयर पर ही बितानी थी.

मगर बच्चा पैर कटवाने के लिए तैयार नहीं था. उसकी जिद के आगे लोगों को झुकना पड़ा और उसका पैर नहीं काटा गया. मगर डॉक्टर के मुताबिक उसकी टांगें इतनी कमज़ोर हो चुकी थी कि उनमें अब शरीर का भार उठाने की क्षमता बची ही नहीं थी. कुछ दिनों बाद बच्चे को हॉस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया गया. डॉक्टरों के लाख कहने के बाद भी बच्चे ने चलने की उम्मीद नहीं छोड़ी थी.

घर पर रहने के दौरान, जब वो बैड पर ना दिखता, तो सब समझ जाते कि वो बाहर व्हील चेयर पर होगा. एक दिन उस बच्चे के मन में ना जाने क्या आया कि उसने खुद को व्हील चेयर से नीचे फेंक दिया. खुद को घास पर घसीटता हुआ वो बच्चा बगीचे की बाड़ के पास पहुंचा और उसके सहारे धीरे-धीरे खुद को खड़ा किया.

बाड़ को पकड़ कर उसने इस विश्वास के साथ चलना शुरू किया कि वह फिर से चल सकता है. वह अब हर रोज़ इसी विश्वास के साथ इस प्रक्रिया को दोहराता रहा. उसके इसी आत्मविश्वास और हौसले की वजह से उसने पहले खड़ा होना सीखा, फिर चलना और फिर भागना.

इसके बाद उसने स्कूल जाना शुरू किया, स्कूल के लिए दौड़ना शुरू किया और तेरह साल की उम्र में उसने अपनी पहली एक मील की रेस जीती. आपको जान कर आश्चर्य होगा कि जिस बच्चे के लिए डॉक्टरों ने कहा था कि वो बच नहीं पाएगा, वो चल नहीं पाएगा, वो सारी उम्र दिव्यांग रहेगा.

मगर इस बच्चे ने सबको गलत साबित कर दिया. वह उठा, दौड़ा और 1934 में न्यूयॉर्क के माडिसन स्क्वायर गार्डन में एक मील की दौड़ का विश्व विजेता बना. यह तो महज शुरुआत थी. इसके बाद उसने 1936 में बर्लिन ओलंपिक के दौरान पंद्रह सौ मीटर रेस में सिल्वर मेडल जीता और आगे पंद्रह सौ मीटर और एक मील की रेस में उसने सात बार इंडोर का वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया.

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