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एक छोटी-सी दिखने वाली लड़की जो मणिपुर के छोटे से गांव नोंगपेक काकचिंग से आती है, बचपन में अपने भाई बहनों के साथ जंगलों से लकडिय़ों के गट्ठर सर पर उठाकर लाती है, तीरंदाज बनने का सपना पालती है लेकिन आखिर में वेटलिफ्टर बन जाती है। अपने खेल करियर के शिखर पर पहुंचती है और वहां बुरी तरह से असफल हो जाती है।

चोट और मानसिक परेशानी झेलती है और अंतत: फिर उबर कर 49 किलो भार वर्ग की श्रेणी में टोक्‍यो ओलिंपिक में 202 किलो भार उठाकर चांदी का तमगा हासिल कर लेती है। असफलता से टूट कर उबरने और बचपन में ढेरों संघर्ष करने पर अपना हौसला नहीं छोडऩे की कहानी है मीराबाई चानू की। हमारा देश है ही ऐसा। यहां जमीन से जुड़ी और विश्व के शिखर पर पहुंचने वाली महिला खिलाडिय़ों की ऐसी कहानियां हैं जो सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि कैसे इन जुझारू लड़कियों ने अपना रास्ता बनाया होगा? कैसे वे संसाधनों की कमी से जूझी होंगी लेकिन लगन को न छोड़कर सफलता के आसमान पर पहुंची होंगी।

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अपने मन का सुनकर आई वेटलिफ्टिंग में : आंध्र प्रदेश के छोटे से गांव से निकलकर 2000 के सिडनी ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली भारत की पहली महिला वेटलिफ्टर कर्णम मल्लेश्वरी के सफर में उतार-चढ़ाव कम नहीं रहे। पांचवीं-छठी कक्षा में थीं, जब पहली बार वेटलिफ्टिंग के बारे में सुना। स्कूल के करीब ही एक सेंटर था, जहां इसका प्रशिक्षण दिया जाता था। लेकिन जब वह वहां पहुंचीं, तो कोच ने साफ कह दिया कि वह वेटलिफ्टिंग नहीं कर सकतीं। कर्णम के बाल मन को यह स्वीकार नहीं हुआ। कर्णम बताती हैं, ‘कोई और कैसे मेरे खेलने अथवा न खेलने का निर्णय ले सकता है? मैं भी जिद्दी थी। एक निजी जिम में प्रशिक्षण करना शुरू कर दिया। चोरी-छिपे सब चलता रहा। इसके बाद 1990 में जूनियर नेशनल प्रतियोगिता में जाने का अवसर मिला। वहां तीन स्वर्ण पदक जीतने के अलावा नौ नये राष्ट्रीय रिकार्ड बनाए। फिर कभी पीछे मुड़कर देखना नहीं हुआ।’

कर्णम के पिता रेलवे पुलिस में थे और मां गृहिणी। घर की आर्थिक स्थिति अच्‍छी न होने के बावजूद उन्होंने बेटी को हमेशा खेलने के लिए प्रोत्साहित किया। पिता की मृत्यु के बाद हालांकि कर्णम ने खेल से संन्यास ले लिया। इस समय वह दिल्ली स्पोट्र्स यूनिवर्सिटी की वाइस चांसलर हैं। वह कहती हैं, ‘खेल में लड़के-लड़कियां काफी अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं। मीरा बाई चानू की ओलिंपिक में जीत से भी देश में वेटलिफ्टिंग के प्रति दिलचस्पी विकसित होगी, इसकी काफी उम्मीद है। हालांकि जमीनी स्तर पर और अधिक बदलाव की आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में ट्रेनिंग की सुविधाएं बढ़ानी होंगी। इस समय हमारी यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने वाले बच्चे न सिर्फ विश्वस्तरीय प्रशिक्षण का लाभ ले सकते हैं, बल्कि विशेषज्ञ कोच की निगरानी में ओलिंपिक जैसे खेलों की तैयारी भी कर सकते हैं।’

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बाक्सिंग ने दिया नाम और आत्मविश्वास : आठ भाई-बहनों में छठे नंबर की लैशराम सरिता को बचपन में बाक्सिंग की कोई जानकारी नहीं थी। खेल में भविष्य बनाया जा सकता है, यह भी मालूम नहीं था। वह तो मणिपुर के एक छोटे से गांव थौबाल में रहती थीं, जहां अधिकतर लोग खेती करते हैं। उनके पिता भी किसान थे, जिन्हें उन्होंने मात्र 13 वर्ष की आयु में खो दिया था। मां ने अकेले सभी बच्चों की परवरिश की। सरिता बताती हैं, ‘मां ने कभी लड़की व लड़के में भेदभाव नहीं किया। इसलिए जब भाई ने ताइक्वांडो खेलने के लिए कहा, तो कोई दिक्कत नहीं आई। कुछ दिन उसमें हाथ आजमाया। फिर कुंगफू सीखने लगीं। कुंगफू के प्रशिक्षण के दौरान ही हाथों के मूवमेंट को सीखने के लिए कोच एक बाक्सिंग एकेडमी में लेकर गए। इस प्रकार 15-16 वर्ष की आयु में पहली बार मैंने बाक्सिंग के बारे में जाना। शुरू में तो खेल को देखकर डर गई थी।

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बाक्सरों के शरीर से निकलने वाले लाल रंग के पसीने (रक्त) को देख लगा कि यह कितना खतरनाक खेल है। लेकिन कुंगफू में सुधार लाने के लिए मुझे एक हफ्ते बाद इसे सीखने जाना पड़ा। खेलने पर बाक्सिंग में दिलचस्प जागी। सरिता रोज सुबह तीन-साढ़े तीन किलोमीटर पैदल और बस से प्रैक्टिस ग्राउंड पर पहुंचतीं। तब प्रदेश में विद्रोहियों का आंदोलन भी चलता था। शहर में आए दिन कर्फ्यू लग जाता था। उस कठिन माहौल में भी उन्होंने हिम्मत को टूटने नहीं दिया। उनकी मेहनत का सुनहरा परिणाम वर्ष 2001 में बैंकाक में हुए एशियन बाक्सिंग चैंपियनशिप में देखने को मिला, जब उन्होंने लाइट वेट क्लास में सिल्वर मेडल प्राप्त किया। 2006 में वह वर्ल्‍ड चैंपियन बनीं और उसके आठ वर्ष बाद 2014 के ग्लासगो कामनवेल्थ गेम्स में 60 किलोग्राम श्रेणी में सिल्वर मेडल जीतकर देशवासियों का मान बढ़ा दिया। वह ऐसी बाक्सर हैं, जिन्होंने चार अलग-अलग वर्गों में स्वर्ण पदक हासिल किया है। सरिता ने बताया, ‘बाक्सिंग ऐसा खेल है, जो आपमें एक अद्भुत आत्मविश्वास भरता है। मैंने कभी सोचा नहीं था कि छोटे से गांव से निकलकर दुनिया के अलग-अलग देशों में खेलूंगी। शादी के बाद या बच्चा होने के बाद भी खेल जारी रहेगा। लेकिन परिवार एवं पति के समर्थन से मैं ऐसा कर पाई।’

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लड़के बोलते लड़की को नहीं खिलाएंगे : लड़कों से लड़-लड़ कर नगंगोम बाला देवी ने फुटबाल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाई। वे पांच साल तक भारतीय महिला फुटबाल टीम की कप्तान रहीं। हाल ही में वे स्काटिश फुटबाल क्लब रेंजर्स एफसी के साथ 18 महीने का अनुबंध साइन कर काफी चर्चा में आईं। इस उपलब्धि से वह पहली भारतीय प्रोफेशनल फुटबालर बन गईं। बालादेवी जब दस साल की थीं तो मणिपुर के एक स्‍थानीय क्लब में उन्होंने लड़कों को फुटबाल खेलते देखा। उस समय कोई लड़की फुटबाल नहीं खेल रही थी। लेकिन उन्हें लगा कि वह भी इनकी तरह फुटबाल खेलें। फिर क्या था वह अपने मिशन में जुट गईं और फुटबाल को ही अपना जुनून बना लिया।

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