देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद को लौहपुरुष नहीं तो, इससे कमतर भी नहीं आंका जा सकता। जिस तरह से सरदार पटेल ने कोर्ट में अपने मुअक्किल के पक्ष में बहस करते पत्नी के निधन के मिले तार को पढऩे के बाद जेब में रखकर बहस पूरी की, उसी तरह से देशरत्न ने भी मां समान बड़ी बहन के शव को छोड़कर गणतंत्र दिवस की परेड में पहुंचने को प्रमुखता दी।

बात 26 जनवरी 1960 की है, जब डॉ. राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति थे। वे हर साल 26 जनवरी को आने वाले गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति की हैसियत से सलामी लेते और देश के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक उत्सव की खुशियां देशवासियों के साथ बांटते। लेकिन, वर्ष 1960 में एक अनहोनी हो गई।

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डॉ. प्रसाद की बड़ी बहन भगवती देवी का निधन 26 जनवरी से एक दिन पहले 25 जनवरी की रात्रि में हो गया। भगवती देवी राजेंद्र बाबू के लिए बड़ी बहन ही नहीं, बल्कि मां भी थीं। वे घर में एकमात्र ऐसी सदस्य थीं, जो बड़ी होने के नाते डॉ. राजेंद्र प्रसाद को उनके अदम्य आदर्शवाद और अनुचित नरमी के लिए डांट भी सकती थीं।

बहन की मृत्यु से राजेंद्र बाबू गहरे शोक में डूब गए। अपनी सबसे निकटस्थ बहन के चले जाने से उन्हें इतना सदमा पहुंचा कि वे बेसुध होकर पूरी रात बहन की मृत्युशैया के निकट बैठे रहे।धीरे-धीरे सुबह का समय होने लगा, लेकिन डॉ. राजेंद्र प्रसाद पल भर के लिए भी वहां से नहीं हटे।

रात के आखिरी पहर में घर के सदस्य ने उन्हें स्मरण कराया कि ‘सुबह 26 जनवरी है और आपको देश का राष्ट्रपति होने के नाते गणतंत्र दिवस परेड की सलामी लेने जाना होगा।’ इतना सुनते ही उनकी चेतना जागृत हो गई और पल भर में सार्वजनिक कत्र्तव्य ने निजी दुख को मानो ढंक लिया।

चंद घंटों बाद सुबह वे सलामी की रस्म के लिए परेड के सामने थे। बुजुर्ग होने के बावजूद वे घंटों खड़े रहे, मगर उनके चेहरे पर न बहन की मृत्यु का शोक था और न ही थकान की क्लांति। सलामी की रस्म पूरी करने के बाद वे घर लौटे और बहन की मृत देह के पास जाकर फफक कर रो दिए। फिर अंत्येष्टि के लिए अर्थी के साथ यमुना तट तक गए और रस्म पूरी की।

ठीक ऐसा ही वाकया सरदार पटेल के साथ हुआ था। अधिवक्ता होने के नाते वे 11 जनवरी 1909 को एक कोर्ट में किसी मामले में बहस कर रहे थे। कोर्ट में बहस के दौरान ही उनको अपनी पत्नी झावेर बा की मृत्यु का तार मिला।

उसे पढ़कर उन्होंने इस प्रकार पत्र को अपनी जेब में रख लिया जैसे कुछ हुआ ही नहीं। दो घंटे तक बहस कर उन्होंने वह केस जीत लिया।

बहस पूर्ण हो जाने के बाद न्यायाधीश एवं अन्य लोगों को जब यह खबर मिली कि सरदार पटेल की पत्नी का निधन हुआ गया, तब उन्होंने सरदार से इस बारे में पूछा तो सरदार ने कहा कि ‘उस समय मैं अपना फर्ज निभा रहा था, जिसका शुल्क मेरे मुवक्किल ने न्याय के लिए मुझे दिया था।

मैं उसके साथ अन्याय कैसे कर सकता था।’ ऐसी कर्तव्यपरायणता और शेर जैसे कलेजे की मिसाल इतिहास में विरले ही मिलती है।

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