देश में कई ऐसे लोग हैं जो इस शब्द को हू-ब-हू चरितार्थ कर रहे हैं। उन्हीं में से एक हैं बिहार के सारण जिले के बरेजा गाँव की सुनीता प्रसाद और उनके पति सत्येंद्र प्रसाद। दोनों भले ही मात्र दसवीं पास हों, लेकिन अपने छोटे-छोटे अभिनव प्रयासों से इन्होनें न सिर्फ खुद को आत्मनिर्भर बनाया, बल्कि आज वह गाँव के अन्य लोगों के लिए प्रेरणा बन चुके हैं।

सुनीता देवी ने पहले मशरूम को अपने रोजगार का जरिया बनाया और एक हद तक खुद को आत्मनिर्भर बनाया। आजकल वह ‘वर्टिकल खेती’ के सहारे घर के आंगन और छत पर सब्जी और फूल उपजा रही हैं। सुनीता देवी के इस अभिनव प्रयोग के लिए मांझी स्थित किसान विज्ञान केंद्र ने उन्हें ‘अभिनव पुरस्कार’ से भी स्मानित किया। इतना ही नहीं उन्हें डीडी किसान के ‘महिला किसान अवार्ड शो’ में भी शामिल किया गया।

सुनीता देवी ने कहा, “मुझे शुरू से ही सब्जी उपजाने का शौक रहा है। कोई भी बर्तन टूट जाता था तो उसमें मिट्टी डालकर कुछ ना कुछ उसमें लगा देती थी। एक दिन मैं कबाड़ी वाले को सामान बेच रही थी। इस दौरान मुझे उसकी साइकिल पर एक पाइप नजर आया, जिसे मैंने खरीद लिया। पाइप को छत पर रख दिया। देखते ही देखते उसमें मिट्टी जम गई। उसके बाद उसमें घास भी निकल आई। यह देख मुझे लगा कि इसको उपयोग में लाया जा सकता है।”

सुनीता आगे बताती हैं,  “मैंने अपने पति से ठीक ऐसा ही एक पाइप लाने के लिए कहा। वह करीब छह फुट लंबा पाइप बाजार से लाए। इसके बाद हमने उसमें कुछ छेद कर दिये। इसके बाद मिट्टी डालकर उसमें कुछ पौधे लगा दिए। जो भी पौधा मिलता था, लगा देते थे। यह आइडिया काम कर गया और उपज होने लगी। अब तो मैं उसमें बैगन, भिंडी और गोभी तक उपजाती हूँ। गोभी देख तो किसान विज्ञान केंद्र की एक अधिकारी अचरज में पड़ गईं। उन्हीं की सलाह पर मैंने इसकी प्रदर्शनी लगाई और मुझे ‘किसान अभिनव सम्मान’ मिला।”

सुनीता का कहना है कि आबादी बढ़ रही है। जमीन घट रही है। खाने के लिए तो सब्जी चाहिए। घर में सीमेंट और मार्बल लग रहे है। अभी नहीं सोचेंगे तो आगे क्या होगा? उन्होंने कहा कि वर्टिकल खेती शुद्ध जैविक खेती है। लोग घर के किसी भी हिस्से में इसे कर सकते हैं। इससे हर आदमी कम से कम अपने खाने लायक सब्जी तो उपजा ही सकता है। आज जो हम खा रहे हैं, उसमें केमिकल होता है। वर्टिकल खेती से उपजे सब्जी से लोगों का स्वास्थ्य भी बढ़िया रहेगा और पैसे भी बचेंगे।

सुनीता चाहती हैं कि इस पद्धति को हर कोई अपनाए। इसे सस्ता बनाने किए वह अब पाइप की जगह बाँस का उपयोग करने लगी हैं। एक पाइप करीब 800-900 रुपए का आता है। वहीं बाँस के लिए महज 100 रुपए खर्च करने पड़ते हैं। सुनीता पहले असम में रहती थीं। वहाँ उन्होंने बाँस का उपयोग देखा था। उसी से उन्हें पाइप की जगह बाँस के उपयोग की प्रेरणा मिली।

सुनीता को परिवार का पूरा सहयोग मिलता है। उन्होंने कहा, “मुझे सदैव अपने परिवार के लोगों का प्रोत्साहन मिला। गाँव में रहकर बहु होते हुए भी मेरे लिए यह करना तभी संभव हो सका। मेरी सास और पति ने कभी मुझे घूंघट में नहीं रखा। सास से तो माँ की तरह प्यार और सहयोग मिला।”

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