उत्तराखंड में नैनीताल के श्यामखेत में अपने उद्गम से निकलकर शिप्रा नदी खैरना तक बहती है। 25 किमी की अपनी इस यात्रा में वह भवाली, कैंची धाम, रातीघाट, रामगाढ़ आदि जगहों को तृप्त करते हुए खैरना में कोसी नदी में जाकर मिल जाती है। लेकिन पिछले दो दशकों में यह नदी सुखकर गंदगी से लबालब मात्र एक नाला बन कर रह गई है। लोगों की आस्था और अध्यात्म का केंद्र होने के साथ-साथ यह नदी किसानों का सहारा भी हुआ करती थी। कभी इस नदी के किनारों पनचक्कियां चला करती थी लेकिन आज इसी नदी का अस्तित्व खतरे में है।
शिप्रा नदी के इसी अस्तित्व को बचाने के लिए 42 वर्षीय जगदीश नेगी पिछले 5 बरसों से जुटे हुए हैं। ‘एकला चालो रे’ की नीति को चरितार्थ करते हुए उन्होंने साल 2015 में नदी के संरक्षण का कार्य शुरू किया था। कचरा निकालने की मुहिम से शुरू हुई यह पहल आज इस नदी के पुनर्जीवन तक पहुँच गई है। नेगी हर संभव प्रयास कर इस नदी को एक बार फिर सदानीरा बनाने में जुटे हैं। अपने इस सफ़र में उन्होंने न जाने कितनी ही मुश्किलों का सामना कर अपना रास्ता बनाया है।
किसी ने फब्तियां कसी तो किसी ने पागल बताया और तो और कई लोगों ने जान से मारने तक की धमकी दे डाली। लेकिन जगदीश नहीं रुके क्योंकि उन्हें उनकी बचपन वाली नदी चाहिए, जिसमें उन्होंने कभी गोते लगाए थे। उनके अविराम सफ़र में धीरे-धीरे ही सही लेकिन आज सैकड़ों साथी जुड़ गए हैं और सभी मिलकर प्रकृति को सहेजने में लगे हैं।
सुबह की सैर से हुई सफ़र की शुरूआत
उत्तराखंड में भवाली जिले के रहने वाले जगदीश नेगी ने साल 1999 में कुमाऊं यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन की। इसके बाद वह रोज़गार की तलाश में जुट गए। कभी मजदूरी की तो कभी दुकान चलाई। साल 2007 में उन्होंने कंस्ट्रक्शन का व्यवसाय शुरू किया और इसमें सफल रहे। जगदीश बताते हैं कि साल 2015 में एक दिन सुबह-सुबह सैर करते वक़्त वह शिप्रा नदी के तट पर पहुँच गए। यहाँ उन्होंने देखा कि नदी में सिर्फ गंदगी ही गंदगी है, लोगों के लिए मानो यह नदी नहीं बल्कि उनका कूड़ेदान हो।
“मैंने उसी दिन निश्चय किया कि इस बारे में कुछ किया जाए। मैंने अपनी फेसबुक पर पोस्ट डाली कि मैं अगले रविवार शिप्रा नदी के सफाई अभियान का काम शुरू करूँगा। अगर कोई साथी, हाथ बंटाना चाहे तो पहुँच जाए। रविवार को मेरे साथ और भी 10-12 लोग जुट गए और एक कोने से हमें नदी की साफ़ सफाई शुरू की,” उन्होंने बताया। हालांकि, उस दिन उन्हें नहीं पता था कि उन्होंने जो काम हाथ में लिया है, वह आगे चलाकर एक बड़ा आंदोलन बन जाएगा।
एक-दो महीने तक हर रविवार उनका यह सफाई अभियान चलता रहा। लेकिन जैसे-जैसे वह आगे बढ़े तो चुनौतियाँ बढ़ने लगीं। अब उनके साथ सफाई अभियान के लिए कोई साथी भी नहीं आते थे क्योंकि सबका जोश कूड़े के और बढ़ते पहाड़ों को देखकर ठंडा पड़ गया। ऐसे में, जगदीश अपने साथ एक-दो मजदूर ले जाने लगे।
लोगों का दुर्व्यवहार बना राह की अड़चन
वह बताते हैं, “जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ा तो पाया कि बहुत से घरों का सीवर पाइप तक नदी में खुला हुआ है। उस गंदगी में कोई पैर रखने को राजी नहीं था। लेकिन मैं पीछे नहीं हटा। पता नहीं क्या जूनून और जोश था कि मैंने ठान लिया कि मैं इनके सीवर पाइप नदी से बंद करवा कर रहूँगा।”
इसके लिए उन्होंने लगभग डेढ़-दो साल तक जिला प्रशासन के चक्कर काटे। वहां के अधिकारियों को इस विषय में सूचित किया कि कैसे चंद बड़े परिवार अपने घरों के सीवर पिट न बनाकर, नदी को दूषित कर रहे हैं। शुरू-शुरू में कोई सुनवाई नहीं हुई। उन्हें मात्र आश्वासन मिलता। लेकिन इस दौरान उन्होंने हिम्मत नहीं हारी बल्कि उनका सफाई अभियान लगातार चलता रहा। नेगी कहते हैं कि उन्होंने बार-बार जिला प्रशासन अपील की और उन्हें एक बार भवाली आकर स्थिति का जायजा लेने के लिए मनाया। बड़ी ही मुश्किल से आईएएस वंदना सिंह के हस्तक्षेप के बाद इन लोगों की मनमानी पर काबू पाया गया और सीवर पिट बने।
इसके साथ-साथ, नेगी के प्रयासों ने नगरपालिका को भी शहर के कूड़े को नदी के किनारे न फेंककर, दूर जंगलों में लैंडफिल तक पहुंचाने के लिए मजबूर किया। उन्होंने अपने इस काम में अपने बहुत से दुश्मन बनाए। वह बताते हैं कि एक बार वह नदी की साफ़-सफाई कर रहे थे तो कुछ दबंग लोगों ने उन्हें डराया-धमकाया और जान से मारने की धमकी भी दी। “लोग अपना व्यवहार नहीं बदलना चाहते। उन्हें आराम चहिये और अगर कोई उनकी इस आरामदायक ज़िंदगी में खलल डाले तो उनसे बर्दाशत नहीं होता। कोई भी अपने सीवर पाइप के लिए पिट बनाने की ज़हमत नहीं उठाना चाहता था। बरसों से उनके चल रहे काम में मैंने रूकावट डाली तो वे बौखला गए,” उन्होंने आगे कहा।
लोग नदी में कूड़ा-कचरा फेंकना बंद कर दें इसके लिए भी नेगी ने जागरूकता अभियान चलाए। उन्होंने लोगों को समझाया कि शिप्रा नदी का भवाली के लिए क्या महत्व है। हर दिन भूजल स्तर कम हो रहा है और अगर अभी भी हम अपने प्राकृतिक जल-स्त्रोतों की सुध नहीं लेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब वाकई, तीसरा विश्व-युद्ध पानी के लिए होगा।